प्रेम निश्चित ही दीवाना है इसलिए चतुर वंचित रह जाते हैं प्रेम से......
उन नासमझों को, उन नादानों को पता ही नहीं चलता कि कितनी बड़ी संपदा गंवा बैठे! वे तो अपनी अकड़ में ही रह जाते हैं--समझ की अकड़। वे तो अपनी बुद्धिमानी में ही घिरे रह जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि जीवन में एक और शराब भी थी, जिसे पीते तो अमृत का अनुभव होता, कि एक और रसधार भी थी जो पास ही बहती थी,
जरा आंख भीतर मोड़ने की जरूरत थी। मगर बुद्धिमान बाहर ही देखता रहता है। बुद्धिमानों से ज्यादा बुद्धू व्यक्ति खोजने मुश्किल हैं। बुद्धू इसलिए कि कूड़ा-कर्कट तो इकट्ठा कर लेते हैं--धन-संपदा, पद-प्रतिशठा; और जीवन की जो असली संपदा है, जो शाश्वत संपदा है, उससे वंचित रह जाते हैं। प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी शाश्वत नहीं है। शेष सब क्षणभंगुर है। शेष बस यूं है जैसे इं(धनुष--दिखाई तो पड़ता है बहुत रंगीन; दिखाई तो पड़ता है बड़ा प्यारा--मगर है वहां कुछ भी नहीं। मुट्ठी बांधोगे तो हाथ कुछ भी न लगेगा। शेष सब कुछ ऐसे ही है जैसे सुबह की धूप में चमकते हुए ओस-कण, लगें कि मोती ही मोती फैल गए हैं आज दूब पर; और पास जाओ जो कुछ भी नहीं है। दूर से मोती हैं; पास जाओ तो मिट्टी भी नहीं। ऐसे ही हमारे धन हैं, पद है, प्रतिशठा है। और इस सबके पीछे चलने वाली दौड़ है--क्षणभंगुर, पानी के बबूलों जैसी। बुद्धिमान उसी में अटका रह जाता है। वह रुपये ही गिनता रहता है। और गिनते-गिनते ही मर जाता है। कुछ जान नहीं पाता, कुछ जी नहीं पाता।
प्रेम है द्वार जीने का, जानने का। प्रेम एक अनूठा ही मार्ग है जानने का। एक मार्ग तो है शास्त्र-ज्ञान, शब्द-ज्ञान; वह जानने का धोखा है। उससे बस प्रतीति होती है कि जाना, और जानने में कुछ आता नहीं। पढ़ो वेद, पढ़ो कुरान, पढ़ो बाइबिल। हो जाएंगे याद तुम्हें शब्द, दोहराने लगोगे उन शब्दों को। सुंदर और प्यारे शब्द हैं। और दोहराओगे तो खुद को भी अच्छा लगेगा, हृदय में गुदगुदी होगी। लेकिन खाली आए, खाली ही जाओगे।
बुद्धि से जाना नहीं जाता; जाना जाता है हृदय से। तर्क से नहीं जाना जाता; जाना जाता है प्रीति से।
प्रीति है रीति जानने की.........🌹