बुधवार, 17 जुलाई 2019

👉 क्या-क्या प्राप्त करना शेष

अभी हमारे लिए क्या-क्या प्राप्त करना शेष रहा है, जानते हो? देखो:-

प्रेम- 
क्योंकि अभी तक हमने केवल द्वेष और आत्मसंतोष की ही साधना की है।

ज्ञान? 
क्योंकि अभी तक हम केवल स्खलन अवलोकन और विचारशक्ति को ही प्राप्त कर सके हैं।

आनन्द? 
क्योंकि अभी तक हम केवल दुःख सुख तथा उदासीनता को ही प्राप्त कर सके हैं।

शक्ति? 
क्योंकि अभी तक निर्बलता, प्रयत्न और विजय पराजय तक ही हम पहुँच सके हैं।

जीवन? 
अर्थात् प्राण। अभी तक मानव केवल जन्म, मृत्यु और वृद्धि ही देख सका है।

अद्वैत? 
क्योंकि अभी तक मानवजाति को युद्ध और स्वार्थ साधन करने की विद्या ही आती है।

एक शब्द में कहें तो अभी हमें भगवान को प्राप्त करना है। हमें अपने को उसके दिव्य स्वरूप को प्रतिमा बनाकर आत्मा का पुनर्निर्माण करना है।

सोमवार, 15 जुलाई 2019

👉 ना सम्मान का मोह... ना अपमान का भय..

एक फ़क़ीर था, उसके दोनों बाज़ू नहीं थे। उस बाग़ में मच्छर भी बहुत होते थे। मैंने कई बार देखा उस फ़क़ीर को। आवाज़ देकर, माथा झुकाकर वह पैसा माँगता था। एक बार मैंने उस फ़क़ीर से पूछा – ” पैसे तो माँग लेते हो, रोटी कैसे खाते हो? ”

उसने बताया – ”जब शाम उतर आती है तो उस नानबाई को पुकारता हूँ, ‘ओ जुम्मा ! आके पैसे ले जा, रोटियाँ दे जा। ‘ वह भीख के पैसे उठा ले जाता है, रोटियाँ दे जाता है।”

मैंने पूछा – ” खाते कैसे हो बिना हाथों के? ”
वह बोला – ” खुद तो खा नहीं सकता। आने-जानेवालों को आवाज़ देता हूँ ‘ ओ जानेवालों ! प्रभु तुम्हारे हाथ बनाए रखे, मेरे ऊपर दया करो! रोटी खिला दो मुझे, मेरे हाथ नहीं हैं। ‘हर कोई तो सुनता नहीं, लेकिन किसी-किसी को तरस आ जाता है। वह प्रभु का प्यारा मेरे पास आ बैठता है। ग्रास तोड़कर मेरे मुँह में डालता जाता है, मैं खा लेता हूँ।”

सुनकर मेरा दिल भर आया। मैंने पूछ लिया – ” पानी कैसे पीते हो?”
उसने बताया – ”इस घड़े को टांग के सहारे झुका देता हूँ तो प्याला भर जाता है। तब पशुओं की तरह झुककर पानी पी लेता हूँ।”
मैंने कहा – ”यहाँ मच्छर बहुत हैं। यदि मच्छर लड़ जाए तो क्या करते हो?”
वह बोला – ”तब शरीर को ज़मीन पर रगड़ता हूँ। पानी से निकली मछली की तरह लोटता और तड़पता हूँ।”

हाय! केवल दो हाथ न होने से कितनी दुर्गति होती है!
अरे, इस शरीर की निंदा मत करो! यह तो अनमोल रत्न है! शरीर का हर अंग इतना कीमती है कि संसार का कोई भी खज़ाना उसका मोल नहीं चुका सकता। परन्तु यह भी तो सोचो कि यह शरीर मिला किस लिए है? इसका हर अंग उपयोगी है। इनका उपयोग करो!

स्मरण रहे कि ये आँखे पापों को ढूँढने के लिए नहीं मिलीं।
कान निंदा सुनने के लिए नहीं मिले।
हाथ दूसरों का गला दबाने के लिए नहीं मिले।
यह मन भी अहंकार में डूबने या मोह-माया में फसने को नहीं मिला।
ये आँख सच्चे सतगुरु की खोज के लिये मिली है जो हमें परमात्मा के बताये मार्ग पर चलना सिखाये।
ये हाथ प्राणी मात्र की सेवा करने को मिले हैं।
ये पैर उस रास्ते पर चलने को मिले है जो परम पद तक जाता हो।
ये कान उस संदेश सुनने को मिले है जिसमे परम पद पाने का मार्ग बताया जाता हो।
ये जिह्वा प्रभु का गुण गान करने को मिली है।
ये मन उस प्रभु का लगातार शुक्र और सुमिरन करने को मिला है।
प्रभु तेरा शुक्र है, शुक्र है..लाख लाख शुक्र है।

हम बदलेंगे, युग बदलेगा

👉 रिश्ते की रिश्तेदारी

निशा काम निपटा कर बैठी ही थी कि फोन की घंटी बजने लगी। 

मेरठ से विमला चाची का फोन था ,”बिटिया अपने बाबू जी को आकर ले जाओ यहां से। 

बीमार रहने लगे है , बहुत कमजोर हो गए हैं। 
हम भी कोई जवान तो हो नहीं रहें है,अब उनका करना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। 
वैसे भी आखिरी समय अपने बच्चों के साथ बिताना चाहिए।”

निशा बोली,”ठीक है चाची जी इस रविवार को आतें हैं, बाबू जी को हम दिल्ली ले आएंगे।” 

फिर इधर उधर की बातें करके फोन काट दिया।

बाबूजी तीन भाई है , पुश्तैनी मकान है तीनों वहीं रहते हैं। 
निशा और उसका छोटा भाई विवेक दिल्ली में रहते हैं 
अपने अपने परिवार के साथ। तीन चार साल पहले विवेक को फ्लैट खरीदने की लिए पैसे की आवश्यकता पड़ी तो बाबूजी ने भाईयों से मकान के अपने एक तिहाई हिस्से का पैसा लेकर विवेक को दे दिया था,
कुछ खाने पहनने के लिए अपने लायक रखकर।
दिल्ली आना नहीं चाहते थे इसलिए एक छोटा सा कमरा रख लिया था जब तक जीवित थे तब तक के लिए। 
निशा को लगता था कि अम्मा के जाने के बाद बिल्कुल अकेले पड़ गए होंगे 
बाबूजी लेकिन वहां पुराने परिचितों के बीच उनका मन लगता था। 
दोनों चाचियां भी ध्यान रखती थी।
दिल्ली में दोनों भाई बहन की गृहस्थी भी मज़े से चल रही थी।

रविवार को निशा और विवेक का ही कार्यक्रम बन पाया मेरठ जाने का। 
निशा के पति अमित एक व्यस्त डाक्टर है महिने की लाखों की कमाई है उनका इस तरह से छुट्टी लेकर निकलना बहुत मुश्किल है,

मरीजों की बिमारी न रविवार देखती है न सोमवार। 

विवेक की पत्नी रेनू की अपनी जिंदगी है उच्च वर्गीय परिवारों में उठना बैठना है उसका , इस तरह के छोटे मोटे पारिवारिक पचड़ों में पड़ना उसे पसंद नहीं।

रास्ते भर निशा को लगा विवेक कुछ अनमना , गुमसुम सा बैठा है। 
वह बोली,”इतना परेशान मत हो, ऐसी कोई चिंता की बात नहीं है, उम्र हो रही है, थोड़े कमजोर हो गए हैं ठीक हो जाएंगे।”

विवेक झींकते हुए बोला,”अच्छा खासा चल रहा था,पता नहीं चाचाजी को एसी क्या मुसीबत आ गई दो चार साल और रख लेते तो। 
अब तो मकानों के दाम आसमान छू रहे हैं,तब कितने कम पैसों में अपने नाम करवा लिया तीसरा हिस्सा।”

निशा शान्त करने की मन्शा से बोली,”ठीक है न उस समय जितने भाव थे बाजार में उस हिसाब से दे दिए।
और बाबूजी आखरी समय अपने बच्चों के बीच बिताएंगे तो उन्हें अच्छा लगेगा।”

विवेक उत्तेजित हो गया , बोला,”दीदी तेरे लिए यह सब कहना बहुत आसान है। तीन कमरों के फ्लैट में कहां रखूंगा उन्हें। 
रेनू से किट किट रहेगी सो अलग, उसने तो साफ़ मना कर दिया है

वह बाबूजी का कोई काम नहीं करेंगी | वैसे तो दीदी लड़कियां हक़ मांग ने तो बडी जल्दी खड़ी हो जाती हैं , करने के नाम पर क्यों पीछे हट जाती है।

आज कल लड़कियों की शिक्षा और शादी के समय में अच्छा खासा खर्च हो जाता है।
तू क्यों नहीं ले जाती बाबूजी को अपने घर, इतनी बड़ी कोठी है ,जिजाजी की लाखों की कमाई है?”

निशा को विवेक का इस तरह बोलना ठीक नहीं लगा।
पैसे लेते हुए कैसे वादा कर रहा था बाबूजी से,”आपको किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो आप निसंकोच फोन कर देना मैं तुरंत लेकर आ जाऊंगा। 

बस इस समय हाथ थोड़ा तन्ग है।” नाममात्र पैसे छोडे थे बाबूजी के पास, और फिर कभी फटका भी नहीं उनकी सुध लेने।

निशा:”तू चिंता मत कर मैं ले जाऊंगी बाबूजी को अपने घर।”

सही है उसे क्या परेशानी, इतना बड़ा घर फिर पति रात दिन मरीजों की सेवा करते है, एक पिता तुल्य ससुर को आश्रय तो दे ही सकते हैं।

बाबूजी को देख कर उसकी आंखें भर आईं। इतने दुबले और बेबस दिख रहे थे,गले लगते हुए बोली,”पहले फोन करवा देते पहले लेने आ जाती।” बाबूजी बोलें,” तुम्हारी अपनी जिंदगी है क्या परेशान करता। 
वैसे भी दिल्ली में बिल्कुल तुम लोगों पर आश्रित हो जाऊंगा।”

रात को डाक्टर साहब बहुत देर से आएं,तब तक पिता और बच्चे सो चुके थे। 
खाना खाने के बाद सुकून से बैठते हुएं निशा ने डाक्टर साहब से कहा,” बाबूजी को मैं यहां ले आईं हूं। 
विवेक का घर बहुत छोटा है, 

उसे उन्हें रखने में थोड़ी परेशानी होती।” अमित के एक दम तेवर बदल गए,वह सख्त लहजे में बोला,” यहां ले आईं हूं से क्या मतलब है तुम्हारा❓
तुम्हारे पिताजी तुम्हारे भाई की जिम्मेदारी है।
मैंने बड़ा घर वृद्धाश्रम खोलने के लिए नहीं लिया था , अपने रहने के लिए लिया है। 
जायदाद के पैसे हड़पते हुए नहीं सोचा था साले साहब ने कि पिता की करनी भी पड़ेगी। 
रात दिन मेहनत करके पैसा कमाता हूं फालतू लुटाने के लिए नहीं है मेरे पास।”

पति के इस रूप से अनभिज्ञ थी निशा। “रात दिन मरीजों की सेवा करते हो मेरे पिता के लिए क्या आपके घर और दिल में इतना सा स्थान भी नहीं है।”

अमित के चेहरे की नसें तनीं हुईं थीं,वह लगभग चीखते हुए बोला,” मरीज़ बिमार पड़ता है पैसे देता है ठीक होने के लिए, मैं इलाज करता हूं पैसे लेता हूं। यह व्यापारिक समझोता है इसमें सेवा जैसा कुछ नहीं है।यह मेरा काम है मेरी रोजी-रोटी है।
बेहतर होगा तुम एक दो दिन में अपने पिता को विवेक के घर छोड़ आओ।”
निशा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। 
जिस पति की वह इतनी इज्जत करती है वें ऐसा बोल सकते हैं।

क्यों उसने अपने भाई और पति पर इतना विश्वास किया? 

क्यों उसने शुरू से ही एक एक पैसा का हिसाब नहीं रखा?

अच्छी खासी नौकरी करती थी , पहले पुत्र के जन्म पर अमित ने यह कह कर छुड़वा दी कि मैं इतना कमाता हूं तुम्हें नौकरी करने की क्या आवश्यकता है।

तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं रहेगी आराम से घर रहकर बच्चों की देखभाल करो।

आज अगर नौकरी कर रही होती तो अलग से कुछ पैसे होते उसके पास या दस साल से घर में सारा दिन काम करने के बदले में पैसे की मांग करती तो इतने तो हो ही जाते की पिता जी की देखभाल अपने दम पर कर पाती। 

कहने को तो हर महीने बैंक में उसके नाम के खाते में पैसे जमा होते हैं लेकिन उन्हें खर्च करने की बिना पूछे उसे इजाज़त नहीं थी।

भाई से भी मन कर रहा था कह दे शादी में जो खर्च हुआ था वह निकाल कर जो बचता है उसका आधा आधा कर दे।
कम से कम पिता इज्जत से तो जी पाएंगे। 
पति और भाई दोनों को पंक्ति में खड़ा कर के बहुत से सवाल करने का मन कर रहा था, जानती थी जवाब कुछ न कुछ तो अवश्य होंगे। 
लेकिन इन सवाल जवाब में रिश्तों की परतें दर परतें उखड़ जाएंगी और जो नग्नता सामने आएगी

उसके बाद रिश्ते ढोने मुश्किल हो जाएंगे। 
सामने तस्वीर में से झांकती दो जोड़ी आंखें जिव्हा पर ताला डाल रहीं थीं।
अगले दिन अमित के हस्पताल जाने के बाद जब नाश्ता लेकर निशा बाबूजी के पास पहुंची तो वे समान बांधे बैठें थे।
उदासी भरे स्वर में बोले,” मेरे कारण अपनी गृहस्थी मत ख़राब कर।
पता नहीं कितने दिन है मेरे पास कितने नहीं।
मैंने इस वृद्धाश्रम में बात कर ली है जितने पैसे मेरे पास है, उसमें मुझे वे लोग रखने को तैयार है।

ये ले पता तू मुझे वहां छोड़ आ , और निश्चित होकर अपनी गृहस्थी सम्भाल।”
निशा समझ गई बाबूजी की देह कमजोर हो गई है दिमाग नहीं।

दमाद काम पर जाने से पहले मिलने भी नहीं आया साफ़ बात है ससुर का आना उसे अच्छा नहीं लगा। 
क्या सफाई देती चुप चाप टैक्सी बुलाकर उनके दिए पते पर उन्हें छोड़ने चल दी। नजरें नहीं मिला पा रही थी,न कुछ बोलते बन रहा था। 
बाबूजी ने ही उसका हाथ दबाते हुए कहा,” परेशान मत हो बिटिया, परिस्थितियों पर कब हमारा बस चलता है। 
मैं यहां अपने हम उम्र लोगों के बीच खुश रहूंगा।”
तीन दिन हो गए थे बाबूजी को वृद्धाश्रम छोड़कर आए हुए।

निशा का न किसी से बोलने का मन कर रहा था न कुछ खाने का। 

फोन करके पूछने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी वे कैसे हैं? 

इतनी ग्लानि हो रही थी कि किस मुंह से पूछे। वृद्धाश्रम से ही फोन आ गया कि बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं रहे।
दस बजे थे बच्चे पिकनिक पर गए थे आठ नौ बजे तक आएंगे, अमित तो आतें ही दस बजे तक है। 
किसी की भी दिनचर्या पर कोई असर नहीं पड़ेगा, किसी को सूचना भी क्या देना। 
विवेक आफिस चला गया होगा बेकार छुट्टी लेनी पड़ेगी।

रास्ते भर अविरल अश्रु धारा बहती रही कहना मुश्किल था पिता के जाने के ग़म में या अपनी बेबसी पर आखिरी समय पर

पिता के लिए कुछ नहीं कर पायी। 
तीन दिन केवल तीन दिन अमित ने उसके पिता को मान और आश्रय दे दिया होता तो वह हृदय से अमित को परमेश्वर का मान लेती।
वृद्धाश्रम के सन्चालक महोदय के साथ मिलकर उसने औपचारिकताएं पूर्ण की। 

वह बोल रहे थे,” इनके बहू , बेटा और दमाद भी है रिकॉर्ड के हिसाब से।उनको भी सूचना दे देते तो अच्छा रहता।

वह कुछ सम्भल चुकी थी बोली, नहीं इनका कोई नहीं है न बहू न बेटा और न दामाद।
बस एक बेटी है वह भी नाम के लिए ।”

सन्चालक महोदय अपनी ही धुन में बोल रहे थे,” परिवार वालों को सांत्वना और बाबूजी की आत्मा को शांति मिले।”

निशा सोच रही थी ‘ बाबूजी की आत्मा को शांति मिल ही गई होगी। जाने से पहले सबसे मोह भंग हो गया था। समझ गये होंगे कोई किसी का नहीं होता,

फिर क्यों आत्मा अशान्त होगी।’

” हां, परमात्मा उसको इतनी शक्ति दें कि किसी तरह वह बहन और पत्नी का रिश्ता निभा सकें | “

ये पैसा ही है जो एक हर रिश्ते की रिश्तेदारी निभा रहा है।

मैं भी एक बेटी हूँ मगर एक बात कहना चाहती हूँ कि हर इंसान को अपने हाथ नहीं काट देने चाहिए ममता मे हो के ........

अपने भाविष्य के लिए कुछ न कुछ रख लेना चाहिए       

........बाद में तो उनका ही हैं मगर जीते जी मरने से तो अच्छा है ....

शनिवार, 6 जुलाई 2019

👉 सबसे ऊँची प्रार्थना

चार शब्दों की उच्चतम प्रार्थना

एक जादूगर जो मृत्यु के करीब था, मृत्यु से पहले अपने बेटे को चाँदी के सिक्कों से भरा थैला देता है और बताता है की "जब भी इस थैले से चाँदी के सिक्के खत्म हो जाएँ तो मैं तुम्हें एक प्रार्थना बताता हूँ, उसे दोहराने से चाँदी के सिक्के फिर से भरने लग जाएँगे। उसने बेटे के कान में चार शब्दों की प्रार्थना कही और वह मर गया। अब बेटा चाँदी के सिक्कों से भरा थैला पाकर आनंदित हो उठा और उसे खर्च करने में लग गया। वह थैला इतना बड़ा था की उसे खर्च करने में कई साल बीत गए, इस बीच वह प्रार्थना भूल गया। जब थैला खत्म होने को आया तब उसे याद आया कि "अरे! वह चार शब्दों की प्रार्थना क्या थी।" उसने बहुत याद किया, उसे याद ही नहीं आया।

अब वह लोगों से पूँछने लगा। पहले पड़ोसी से पूछता है की "ऐसी कोई प्रार्थना तुम जानते हो क्या, जिसमें चार शब्द हैं। पड़ोसी ने कहा, "हाँ, एक चार शब्दों की प्रार्थना मुझे मालूम है, "ईश्वर मेरी मदद करो।" उसने सुना और उसे लगा की ये वे शब्द नहीं थे, कुछ अलग थे। कुछ सुना होता है तो हमें जाना-पहचाना सा लगता है। फिर भी उसने वह शब्द बहुत बार दोहराए, लेकिन चाँदी के सिक्के नहीं बढ़े तो वह बहुत दुःखी हुआ। फिर एक फादर से मिला, उन्होंने बताया की "ईश्वर तुम महान हो" ये चार शब्दों की प्रार्थना हो सकती है, मगर इसके दोहराने से भी थैला नहीं भरा। वह एक नेता से मिला, उसने कहा "ईश्वर को वोट दो" यह प्रार्थना भी कारगर साबित नहीं हुई। वह बहुत उदास हुआ।

उसने सभी से मिलकर देखा मगर उसे वह प्रार्थना नहीं मिली, जो पिताजी ने बताई थी। वह उदास होकर घर में बैठा हुआ था तब एक भिखारी उसके दरवाजे पर आया। उसने कहा, "सुबह से कुछ नहीं खाया, खाने के लिए कुछ हो तो दो।" उस लड़के ने बचा हुआ खाना भिखारी को दे दिया। उस भिखारी ने खाना खाकर बर्तन वापस लौटाया और ईश्वर से प्रार्थना की, "हे ईश्वर ! तुम्हारा धन्यवाद।" अचानक वह चोंक पड़ा और चिल्लाया की "अरे! यही तो वह चार शब्द थे।" उसने वे शब्द दोहराने शुरू किए-"हे ईश्वर तुम्हारा धन्यवाद"........और उसके सिक्के बढ़ते गए... बढ़ते गए... इस तरह उसका पूरा थैला भर गया।

इससे समझें की जब उसने किसी की मदद की तब उसे वह मंत्र फिर से मिल गया। "हे ईश्वर ! तुम्हारा धन्यवाद।" यही उच्च प्रार्थना है क्योंकि जिस चीज के प्रति हम धन्यवाद देते हैं, वह चीज बढ़ती है। अगर पैसे के लिए धन्यवाद देते हैं तो पैसा बढ़ता है, प्रेम के लिए धन्यवाद देते हैं तो प्रेम बढ़ता है। ईश्वर या गुरूजी के प्रति धन्यवाद के भाव निकलते हैं की ऐसा ज्ञान सुनने तथा पढ़ने का मौका हमें प्राप्त हुआ है। बिना किसी प्रयास से यह ज्ञान हमारे जीवन में उतर रहा है वर्ना ऐसे अनेक लोग हैं, जो झूठी मान्यताओं में जीते हैं और उन्हीं मान्यताओं में ही मरते हैं। मरते वक्त भी उन्हें सत्य का पता नहीं चलता। उसी अंधेरे में जीते हैं, मरते हैं।

ऊपर दी गई कहानी से समझें की "हे ईश्वर ! तुम्हारा धन्यवाद" ये चार शब्द, शब्द नहीं प्रार्थना की शक्ति हैं। अगर यह चार शब्द दोहराना किसी के लिए कठिन है तो इसे तीन शब्दों में कह सकते हैं, "ईश्वर तुम्हार धन्यवाद।" ये तीन शब्द भी ज्यादा लग रहे हों तो दो शब्द कहें, "ईश्वर धन्यवाद !" और दो शब्द भी ज्यादा लग रहे हों तो सिर्फ एक ही शब्द कह सकते हैं, "धन्यवाद।" आइए, हम सब मिलकर एक साथ धन्यवाद दें उस ईश्वर को, जिसने हमें मनुष्य जन्म दिया और उसमें दी दो बातें - पहली "साँस का चलना" दूसरी "सत्य की प्यास।" यही प्यास हमें खोजी से भक्त बनाएगी। भक्ति और प्रार्थना से होगा आनंद, परम आनंद, तेज आनंद।

👉 आदमी और रिश्ते

 एक-एक भिंडी को प्यार से धोते पोंछते हुये वह काट रही थी। अचानक एक भिंडी के ऊपरी हिस्से में छेद दिख गया, सोचा भिंडी खराब हो गई, वह फेंक देगी लेकिन नहीं, उसने ऊपर से थोड़ा काटा, कटे हुये हिस्से को फेंक दिया। फिर ध्यान से बची भिंडी को देखा, शायद कुछ और हिस्सा खराब था, उसने थोड़ा और काटा और फेंक दिया फिर तसल्ली की, बाक़ी भिंडी ठीक है कि नहीं। तसल्ली होने पर काट के सब्ज़ी बनाने के लिये रखी भिंडी में मिला दिया।

वाह क्या बात है, पच्चीस पैसे की भिंडी को भी हम कितने ख्याल से, ध्यान से सुधारते हैं, प्यार से काटते हैं, जितना हिस्सा सड़ा है उतना ही काट के अलग करते हैं, बाक़ी अच्छे हिस्से को स्वीकार कर लेते हैं।

ये तो क़ाबिले तारीफ है, लेकिन अफसोस। इंसानों के लिये कठोर हो जाते हैं एक ग़लती दिखी नहीं कि उसके पूरे व्यक्तित्व को काट के फेंक देते हैं, उसके सालों के अच्छे कार्यों को दरकिनार कर देते हैं। महज अपने ईगो को संतुष्ट करने के लिए उससे हर नाता तोड़ देते हैं।

क्या पच्चीस पैसे की एक भिंडी से भी कमतर हो गया है आदमी और रिश्ते??? 🤔
विचार करें। 🙏

👉 एक बात मेरी समझ में कभी नहीं आई

🏳️ध्यान से पढ़ियेगा👇      〰️〰️〰️〰️〰️ एक बात मेरी समझ में कभी नहीं आई कि  ये फिल्म अभिनेता (या अभिनेत्री) ऐसा क्या करते हैं कि इनको एक फिल्म...