रविवार, 29 मार्च 2020

"शर्त "

👉 महान लेखक टालस्टाय की एक कहानी है- "शर्त "

इस कहानी में दो मित्रो में आपस मे शर्त लगती है कि, यदि उसने 1 माह एकांत में बिना किसी से मिले,बातचीत किये एक कमरे में बिता देता है, तो उसे 10 लाख नकद वो देगा। इस बीच, यदि वो शर्त पूरी नहीं करता, तो वो हार जाएगा। पहला मित्र ये शर्त स्वीकार कर लेता है। उसे दूर एक खाली मकान में बंद करके रख दिया जाता है। बस दो जून का भोजन और कुछ किताबें उसे दी गई।

उसने जब वहां अकेले रहना शुरू किया तो 1 दिन 2 दिन किताबो से मन बहल गया फिर वो खीझने लगा। उसे बताया गया था कि थोड़ा भी बर्दाश्त से बाहर हो तो वो घण्टी बजा के संकेत दे सकता है और उसे वहां से निकाल लिया जाएगा।

जैसे जैसे दिन बीतने लगे उसे एक एक घण्टे युगों से लगने लगे। वो चीखता, चिल्लाता लेकिन शर्त का खयाल कर बाहर किसी को नही बुलाता। वो अपने बाल नोचता, रोता, गालियां देता तड़फ जाता, मतलब अकेलेपन की पीड़ा उसे भयानक लगने लगी पर वो शर्त की याद कर अपने को रोक लेता।

कुछ दिन और बीते तो धीरे धीरे उसके भीतर एक अजीब शांति घटित होने लगी। अब उसे किसी की आवश्यकता का अनुभव नही होने लगा। वो बस मौन बैठा रहता। एकदम शांत उसका चीखना चिल्लाना बंद हो गया। 

इधर, उसके दोस्त को चिंता होने लगी कि एक माह के दिन पर दिन बीत रहे हैं पर उसका दोस्त है कि बाहर ही नही आ रहा है। माह के अब अंतिम 2 दिन शेष थे, इधर उस दोस्त का व्यापार चौपट हो गया वो दिवालिया हो गया। उसे अब चिंता होने लगी कि यदि उसके मित्र ने शर्त जीत ली तो इतने पैसे वो उसे कहाँ से देगा।

वो उसे गोली मारने की योजना बनाता है और उसे मारने के लिये जाता है। जब वो वहां पहुँचता है तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नही रहता। वो दोस्त शर्त के एक माह के ठीक एक दिन पहले वहां से चला जाता है और एक खत अपने दोस्त के नाम छोड़ जाता है।

खत में लिखा होता है-
प्यारे दोस्त इन एक महीनों में मैंने वो चीज पा ली है जिसका कोई मोल नही चुका सकता। मैंने अकेले मे रहकर असीम शांति का सुख पा लिया है और मैं ये भी जान चुका हूं कि जितनी जरूरतें हमारी कम होती जाती हैं उतना हमें असीम आनंद और शांति मिलती है मैंने इन दिनों परमात्मा के असीम प्यार को जान लिया है। इसीलिए मैं अपनी ओर से यह शर्त तोड़ रहा हूँ अब मुझे तुम्हारे शर्त के पैसे की कोई जरूरत नही।

इस उद्धरण से समझें कि लॉकडाउन के इस परीक्षा की घड़ी में खुद को झुंझलाहट, चिंता और भय में न डालें, उस परमात्मा की निकटता को महसूस करें और जीवन को नए दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न कीजिये, इसमे भी कोई अच्छाई होगी यह मानकर सब कुछ भगवान को समर्पण कर दें।

विश्वास मानिए अच्छा ही होगा।
लॉक डाउन का पालन करे। स्वयं सुरक्षित रहें, परिवार, समाज और राष्ट्र को सुरक्षित रखें।

लॉक डाउन के बाद जी तोड़ मेहनत करना है, स्वयं, परिवार और राष्ट्र के लिए... देश की गिरती अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए👍🏻👍🏻👍🏻

सभी को प्रणाम🙏🏻🙏🏻🙏🏻

शनिवार, 28 मार्च 2020

👉 तिरस्कार या मजबूरी

गोपाल किशन जी  एक सेवानिवृत अध्यापक हैं। सुबह  दस बजे तक ये एकदम स्वस्थ प्रतीत हो रहे थे। शाम के सात बजते-बजते तेज बुखार के साथ-साथ वे सारे लक्षण दिखायी देने लगे जो एक कोरोना पॉजीटिव मरीज के अंदर दिखाई देते हैं। 

परिवार के सदस्यों के चेहरों पर खौफ़ साफ़ दिखाई पड़ रहा था। उनकी चारपाई घर के एक पुराने बड़े से बाहरी कमरे में डाल दी गयी जिसमें इनके पालतू कुत्ते मार्शल का बसेरा है। गोपाल किशन जी कुछ साल पहले एक छोटा सा घायल पिल्ला सड़क से उठाकर लाये थे और अपने बच्चे की तरह पालकर इसको नाम दिया मार्शल।

इस कमरे में अब गोपाल किशन जी, उनकी चारपाई और उनका प्यारा मार्शल हैं।दोनों बेटों -बहुओं ने दूरी बना ली और बच्चों को भी पास ना जानें के निर्देश दे दिए गये। 

सरकार द्वारा जारी किये गये नंबर पर फोन करके सूचना दे दी गयी। खबर मुहल्ले भर में फैल चुकी थी लेकिन मिलने कोई नहीं आया। साड़ी के पल्ले से मुँह लपेटे हुए,  हाथ में छड़ी लिये पड़ोस की कोई एक बूढी अम्मा आई और गोपाल किशन जी की पत्नी से बोली -"अरे कोई इसके पास दूर से खाना भी सरका दो, वे अस्पताल वाले तो इसे भूखे को ही ले जाएँगे उठा के"। 

अब प्रश्न ये था कि उनको खाना देनें  के लिये कौन जाए। बहुओं ने खाना अपनी सास को पकड़ा दिया अब गोपाल किशन जी की पत्नी के हाथ, थाली पकड़ते ही काँपने लगे, पैर मानो खूँटे से बाँध दिये गए हों। 

इतना देखकर वह पड़ोसन बूढ़ी अम्मा बोली "अरी तेरा तो  पति है तू भी ........।  मुँह बाँध के चली जा और दूर से थाली सरका दे वो अपने आप उठाकर खा लेगा"। सारा वार्तालाप गोपाल किशन जी चुपचाप सुन रहे थे, उनकी आँखें नम थी और काँपते होठों से उन्होंने कहा कि "कोई मेरे पास ना आये तो बेहतर है, मुझे भूख भी नहीं है"। 

इसी बीच एम्बुलेंस आ जाती है और गोपाल किशन जी को एम्बुलेंस में बैठने के लिये बोला जाता है। गोपाल किशन जी घर के दरवाजे पर आकर एक बार पलटकर अपने घर की तरफ देखते हैं। पोती -पोते First floor की खिड़की से मास्क लगाए दादा को निहारते हुए और उन बच्चों के पीछे सर पर पल्लू रखे उनकी दोनों बहुएँ दिखाई पड़ती हैं। Ground floor पर, दोनों बेटे काफी दूर,  अपनी माँ के साथ खड़े थे। 

विचारों का तूफान गोपाल किशन जी के अंदर उमड़ रहा था। उनकी पोती ने उनकी तरफ हाथ हिलाते हुए Bye कहा। एक क्षण को उन्हें लगा कि 'जिंदगी ने  अलविदा कह दिया' 

गोपाल किशन जी की आँखें लबलबा उठी। उन्होंने बैठकर अपने घर की देहरी को चूमा और एम्बुलेंस में जाकर बैठ गये। 

उनकी पत्नी ने तुरंत पानी से  भरी बाल्टी घर की उस  देहरी पर उलेड दी जिसको गोपाल किशन चूमकर एम्बुलेंस में बैठे थे। 

इसे तिरस्कार कहो या मजबूरी, लेकिन ये दृश्य देखकर कुत्ता भी रो पड़ा और उसी एम्बुलेंस के पीछे - पीछे हो लिया जो गोपाल किशन जी को अस्पताल लेकर जा रही थी। 

गोपाल किशन जी अस्पताल में 14 दिनों के अब्ज़र्वेशन पीरियड में  रहे। उनकी सभी जाँच सामान्य थी। उन्हें पूर्णतः स्वस्थ घोषित करके छुट्टी दे दी गयी। जब वह अस्पताल से बाहर निकले तो उनको अस्पताल के गेट पर उनका कुत्ता मार्शल बैठा दिखाई दिया। दोनों एक दूसरे से लिपट गये। एक की आँखों से गंगा तो एक की आँखों से यमुना बहे जा रही थी। 

जब तक उनके बेटों की लम्बी गाड़ी उन्हें लेने पहुँचती तब तक वो अपने कुत्ते को लेकर किसी दूसरी दिशा की ओर निकल चुके थे। 

उसके बाद वो कभी दिखाई नहीं दिये। आज उनके फोटो के साथ उनकी  गुमशुदगी की खबर  छपी है अखबार में लिखा है कि सूचना देने वाले को 40 हजार का ईनाम दिया जायेगा। 

40 हजार - हाँ पढ़कर ध्यान आया कि इतनी ही तो मासिक पेंशन आती थी उनकी जिसको वो परिवार के ऊपर हँसते गाते उड़ा दिया करते थे।

👉 एक सूफी कहानी 🔥

एक फकीर जो एक वृक्ष के नीचे ध्यान कर रहा था,  रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काटते ले जाते देखता था। एक दिन उससे कहा कि सुन भाई, दिन— भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती। तू जरा आगे क्यों नहीं जाता। वहां आगे चंदन का जंगल है। एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा।

गरीब लकड़हारे को भरोसा तो नहीं आया, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है! जंगल में ही तो जिंदगी बीती। लकड़ियां काटते ही तो जिंदगी बीती। यह फकीर यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा? मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो! फिर झूठ कहेगा भी क्यों? शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है। कभी बोला भी नहीं इसके पहले। एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है।

तो गया। लौटा फकीर के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां कौन जानता है। मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी। मेरा बाप भी लकड़हारा था, उसका बाप भी लकड़हारा था। हम यही काटने की, जलाऊ—लकड़ियां काटते—काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या! हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही। तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई, तुमने परख दी। जरूर जंगल है। मैं भी कैसा अभागा! काश, पहले पता चल जाता! फकीर ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है। जब घर आ गए तभी सबेरा है। दिन बड़े मजे में कटने लगे। एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती। 

एक दिन फकीर ने कहा; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी। जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है? उस फकीर ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है। लकडिया—वकडिया काटना छोड़ो। एक दिन ले आओगे, दो—चार छ: महीने के लिए हो गया।

अब तो भरोसा आया था। भागा। संदेह भी न उठाया। चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या! चांदी ही चांदी थी! चार—छ: महीने नदारद हो जाता। एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता। लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है। फकीर ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझी को तुम्हें जगाना पड़ेगा। आगे सोने की खदान है मूर्ख! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं? अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है। जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल में नहीं आता?

उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था। फकीर ने कहा : थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। फिर और आगे हीरों की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। और एक दिन फकीर ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे। उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो। अब हीरों के आगे क्या हो सकता है?

उस फकीर ने कहा. हीरों के आगे मैं हूं। तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं भर रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा?

रोने लगा वह आदमी। सिर पटक दिया चरणों पर। कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं मुझे यह सवाल ही नहीं आता। तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है। यह तो मेरे जन्मों—जन्मों में नहीं आ सकता था खयाल कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है। 

फकीर ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है। 

अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं। अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे कीमती है।

👉 लंगर की महिमा

एक बार गुरु नानक देव जी मरदाने के साथ किसी नगर को गए
वहाँ सारे नगर वासी इकठे हो गए
वहाँ एक भगतनि श्री गुरु नानक देव जी से कहने लगी 
महाराज मेने तो सुना है आप सभी के दुःख दूर करते हो 
मेरे भी दुःख दूर करो में बहुत दुखी हूँ 
में तो आप के गुरुद्वारे में रोज 50 रोटी अपने घर से बना कर बाटती हूँ
फिर भी दुखी हूँ
गुरु नानक देव जी ने बोला 
तू दुसरो का दुःख अपने घर लाती हो इस लिए दुखी हो 
वो कहने लगी महाराज मुझे कुछ समझ नही आया मुझ अज्ञानी को ज्ञान दो 
गुरु नानक देव जी कहने लगे तू 50 रोटी गुरु द्वारे में बाटती हो
बदले में क्या ले जाती हो 
वो कहने लगी कुछ भी नही सिर्फ आप के लंगर के सिवा 
गुरु नानक देव जी कहने लगे 
लंगर का मतलब है एक रोटी खाना ओर अपने गुरु का शुकर मनाना
पर तु तो रोज बड़ी बड़ी थैलियों में दाल  मखनी  मटर पनीर रायता 
खीर और 10  15 रोटी भर भर के ले जाती हो
3 तीन दिन वो लंगर तेरे घर मे रहता है तू अपने घर आने वाले सभी परिवार को वो खिलाती हो 
अपनी शान बढ़ाने को
 में इतनी अमीर हूँ
पर तु नही जानती गुरु घर के लंगर की  रोटी के एक टुकड़े में भी गुरु जी की वो ही किरपा रहती है जितना गुरु जी के भंडारे में होती है
तू कहती है मेरे बच्चे घर है उसके लिए मेरे पोतों के लिए मेरी बहु के लिए मेरे बेटे के लिए
इनके सब के लिए भरपूर लंगर ले जाना जाना है
तू ले जाती है 
पर तु ये नही जानती इसको गुरु द्वारे में कितनो के चखने से दुःख दूर होने थे 
पर तूने अपने सुख के लिए दुसरो के दुख दूर नही होने दिए 
इसी लिए तू उनके सारे दुख अपने घर ले जाती हो और दुखी रहती हो 
तेरे दुख तो दिन दुगने रात चोगने बढ़ रहे है 
उसमे हम क्या करे बता

उसकी आँखों से परदा हट गया 
वो जार जार रोने लगी 
महाराज में अंधकार में डूबी थी 
मुझे क्षमा करो अपने चरणों से लगाओ
अब में लंगर में एक एक चम्मच का लंगर करूंगी 

इसी लिए कहते है इंसान अपने दुःख खुद खरीदता है 

लंगर में गुरु का प्रसाद 
प्रसाद समझ के एक चम्मच भी लोगे तो भी गुरु की किरपा उतनी ही होगी जितना भर पेट खाओगे 

👉 एक बात मेरी समझ में कभी नहीं आई

🏳️ध्यान से पढ़ियेगा👇      〰️〰️〰️〰️〰️ एक बात मेरी समझ में कभी नहीं आई कि  ये फिल्म अभिनेता (या अभिनेत्री) ऐसा क्या करते हैं कि इनको एक फिल्म...