शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

अध्यात्म की आधारशिला-मन की स्वच्छता भाग 1


अध्यात्म की आधारशिला-मन की स्वच्छता भाग 1

    जिस स्थान पर मनुष्य रहता तथा जिस शरीर से काम लेता है, उसकी नित्य सफाई करनी होती है। आहार-विहार से स्वास्थ्य संवर्धन का लाभ तभी मिल पाता है। गन्दगी बढ़ने से रोगों के कीटाणु उत्पन्न होते तथा अनेकों रोगों को जन्म देते हैं। अतएव स्वच्छता, स्वास्थ्य सन्तुलन के लिए अनिवार्य है। मन की स्वच्छता, पवित्रता शरीर से भी अधिक आवश्यक है। शरीर की भाँति मन पर भी नित्य विकारों की पर्त चढ़ती है। उनका शोधन भी जरूरी है। काम-क्रोध-लोभ-अहंकार जैसे अनेकों विकारों के  कारण ही मन चिन्तित, विक्षुब्ध बना रहता है। 

    स्वच्छ मन में ही श्रेष्ठ विचारों का निवास होता है। वैयक्तिक अथवा सामूहिक उन्नति अथवा अवनति विचारों की उत्कृष्टता पर निर्भर करती है। स्वच्छ मन मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, स्वार्थ, पाप, व्यभिचार, अपहरण, क्रोध, अहंकार, आदि दुष्प्रवृत्तियाँ मन में बढें़ तो मनुष्य पिशाच बन जाता है। उसकी सारी क्रियाएँ और चेष्टाएँ ऐसी हो जाती हैं जिनसे उसे मनुष्य शरीर में रहते हुए भी प्रत्यक्ष असुर के रूप में देखा जा सकता है। आलस, प्रमाद, निराशा, अनुत्साह, अनियमितता, दीर्घसूत्रता, विलासिता जैसे दुर्गुण मन में जम जायें तो वह एक प्रकार से पशु ही बन जाता है। सींग, पूँछ भले ही उसके न हों पर जीवन के अपव्यय की दृष्टि से वह सब प्रकार पशु से भी अधिक घाटे में रहता है।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य 

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