शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

अध्यात्म की आधारशिला-मन की स्वच्छता भाग 2

 अध्यात्म की आधारशिला-मन की स्वच्छता भाग 2

मन की मलीनता प्रगति के द्वार बन्द कर देती है। उससे न जम कर श्रम होता है और न पुरूषार्थ, साहस की पूँजी ही उसके पास शेष रहती है। दूषित दृष्टिकोण के कारण भीतर ही भीतर निरन्तर जलता -भुनता रहता है और अशान्ति, उद्विग्रता में घिरा रहता है। झुंझलाहट, अशिष्टता, कटुता ही उसके चेहरे और व्यवहार से टपकती है। दूसरे हर किसी को खराब बताना, सब में दोष ढूँढ़ना और उन्हें अपना शत्रु मानना ऐसा मानसिक दुर्गुण है जिसके कारण अपने भी विराने हो जाते हैं, जो लोग प्यार करते थे और सहयोग देते थे वे भी उदासीन, असन्तुष्ट और प्रतिपक्षी बन जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने आपको मरघट के ठूँठ करील की तरह सर्वथा एकाकी और सताया हुआ ही अनुभव करते रहते है। बेचारों की स्थिति दयनीय रहती हैं।

आलसी और अव्यवस्थित, छिन्द्रान्वेषी और उद्विग्र मनुष्य के लिये यह संसार नरक के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पापी और दुराचारी, चोर और व्यभिचारी की न लोक में प्रतिष्ठा है और न परलोक में स्थान। ऐसे लोग क्षणिक सुख की मृग-तृष्णा में भटकते और ओस चाटते फिरते है, फिर भी उन्हें सन्ताप के अतिरिक्त मिलता कुछ नही। दो घड़ी डरते काँपते कुछ ऐश कर भी लिया तो उसकी प्रति-क्रिया में चिर-अशान्ति उसके पल्ले बँध जाती है । मन की मलीनता से बढ़कर इस संसार में और कोई शत्रु नहीं है। यह पिशाचिनी भीतर ही भीतर कलेजे को चाटती रहती है और जो कुछ मानव जीवन में श्रेष्ठता है उस सबको चुपके-चुपके खा जाती है। बेचारा मनुष्य अपनी बर्बादी की इस तपेदिक को समझ भी नहीं पाता। वह बाहर ही कारणों को ढूँढ़ता रहता है, कभी इस पर कभी उस पर दोष मढ़ता रहता है और भीतर ही भीतर चलने वाली यह सत्यानाशी आरी सब कुछ चीर डालती है। उन्नति, प्रगति, शान्ति, स्नेह, आत्मीयता, प्रसन्नता जैसे लाभ जो उसे मन के स्वच्छ होने पर सहज ही मिल सकते थे, उसके लिए एक असंभव जैसी चीज बने रहते हैं।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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